मियां

पहले रब्ब का नाम लो,
फ़िर करो क़बूल मियां |
सबसे पहला आशिक़ वह,
फिर वह नबी-रसूल मियां |

झुका के सर उल्फत में,
करूँ वो बंदगी |
वक़्त सारा परस्तिश में,
ऐसी गुज़रे ज़िंदगी मियां |

फ़िक्र की माशूका है क़यामत,
ज़िंदा को पहनाती कफ़न |
लेहद तो फिर भी है शुक्र,
होते सिर्फ़ मुर्दे दफ़न मियां |

ज़र्फ़-ए-नज़र जो उठी पहले,
उस पहली नज़र को सलाम |
सर नहीं झुके नमरूद पे,
चाहे हो सर कलाम मियां |

क्या आज इतना इतरा रहे हो यार तुम भी ?
भूल गए क्या ?
हम है पल दो पल के मेहमान मियां |

किया या ना किया,
क्या फर्क पड़ता है जब दिल से ना हो ?
पढ़-पढ तो ज्ञान बहुत कमाया,
पर क्या किया कोई कर्म मियां ?

रक़्स-ए-बिस्मिल से जवान गुलिस्तां,
है अजब इसका बाग़बान |
ना मैं जानू फ़ारसी या दरी,
ना इश्क़ के इलावा कोई ज़ुबान मियां |

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