बारिशों ने, तूफानों ने, कब रोका था |
मैंने आपको मुझे बुलाने से कब रोका था |
कारवां मोहब्बत का राह में छूट गया,
मुझे कोई मेरा अपना ही लूट गया |
आहों ने, बाहों ने, कब रोका था |
मैंने आपको मुझे बुलाने से कब रोका था |
एक बेगुनाह मुजरिम की तरह करता रहा,
मैं अपनी कारवाही,
पर ओ बेवफा, मुझे तेरी उल्फ़त राज़ ना आई |
आँसुंओं ने, न निगाहों, ने कब रोका था |
मैंने आपको मुझे बुलाने से कब रोका था |
कल रात पैमाने में तेरी तस्वीर को डुबो दिया,
मैंने ख़ुद ही तेरी आशिकी को डुबो दिया |
शराबों ने, पैमानों ने, कब रोका था |
मैंने आपको मुझे बुलाने से कब रोका था |
अपने अंदर लेखक को केसे पेदा करे… अगस्त्य जी…
वो पहले से हो पैदा हो चूका है। बाहर लाके उस से बात करो।
किस तरह से साहब…और लेखन की केसे शुरुआत करे…
बस, लिखते रहिये, कुछ भी, कभी भी | कोई फार्मूला नहीं है |
धन्यवाद…