वेद पढ़ी, क़ुरान पढ़ी,
लोगों की रटाई हुई बातें रटी |
पर नहीं कटी,
जैसे चाहता था उम्र को |
क्यूँ नहीं ?
कंकर में है शंकर,
यहाँ ख़ुदा, वहां ख़ुदा |
सब अंदर है |
पता तो था, फ़िर भी,
अपनी सिली-सूखी जेब के फटे-गीले नोट,
को ज़रिया बनाया |
क्यूँ बनाया ?
दिन अब कम है,
इतने सारे क्यूँ का क्यूँ जवाब नहीं ?
रीत में अब प्रीत नहीं |
मुझे हार नहीं, जीत नहीं |
कुछ भी नहीं |
ज़िंदगी को थोडा-थोडा चखा है |
आचार के साथ कुछ और ही मज़ा है |
मेरे साथ आओ, साथी मेरे,
एक अजब-गजब दुनिया दिखाऊंगा |
सतरंगी तुम, और बेरंग वो दिखाऊंगा |
मैं कौन हूँ?
कोई फ़लसफ़ी नहीं |
ज़िन्दगी के अनेक थप्पड़,
और लातों से मारा गया,
और फ़िर गले लगाके, चाय पिलाके,
पीठ में खंजर घोंपा गया हुआ,
एक आम आदमी |